खामोशी

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मेरी ख़ामोशी आइ पास मेरे,
कुछ बोली मुझसे,
मन की गिरहा टटोली उसने,
सतह: पे कुछ उभरी तसवीरें,
गहराइ मे झाँनका तो मिले लम्हे

कुछ गुमसुम और कुछ सहमें से

इनहें था कभी संजोया,
मोतियों की तरह,
सपनो को पिरोया,
फिर इंतज़ार किया खुशियों का,
क्यों मेरा आज
है मौहताज उन लम्हों का?

समय की फ़ितरत ही है, जैसे बेवफा़,
इन लम्हों को कुछ बहका-सा गया,
काल वक्त ने युहीं इतना मुझे हसाया,
आज यही वक्त बेवज़ह ही रुला गया।

लो कर रही हुँ मैं बीते लम्हों को आजा़द,
सुन अपनी खामोशी के संकुचित सी आवाज़,
अब लौटके जाना नहीं मुनासिब,
परछाइयों से निकलकर, नई दुनिया होगी हासिल ।